My YouTube Channel
जरा सोचें
इस सृष्टि में हमारे लेने के लिए इतना कुछ बिखरा हुआ है, ईतनी अनंत है ये सृष्टि कि हम जीवन भर पाते और समेटते रहे तो भी हमें लगेगा कि हमने तो अभी कुछ नहीं पाया। अभी तो ना जाने क्या-क्या शेष है, पाने के लिए। इसलिए कहा गया है कि यदि हम और कुछ ना ले, केवल “प्रेरणा” ही ले लें तो हमें जीव में बहुत कुछ मिल जाएगा--- दूसरे शब्दों में तब हम यह मान लें कि हमने बहुत कुछ पा लिया है।
just-thinking |
बाहर से प्रेरणा लेने से पहले हमें अपने अंतःकरण की प्रेरणा की आवाज को ही सुने तो हम देखेंगे कि हमने अपने जीवन को बहुत कुछ संवार लिया है, साथ ही हम कई गलतियों और असफलताओं से बच गए हैं। हमारा अंत:करण कई बार हमें प्रेरित करता है कि डरो मत, अमुक काम को करो। लेकिन यदि हम उसकी उपेक्षा कर देते हैं तो बाद में पछताते हैं क्योंकि अवसर और समय निकल चुका होता है।
2.हम और हमारा परिवार
दूसरी ओर यही अंतःकरण कई बार हमें कोई काम ना करने के लिए प्रेरित करता है। इस समय भी यदि हमने उसकी आवाज सुन ली और उस काम से दूर हट गए, तो हम पाएंगे कि हम एक बड़ी मुसीबत से बच गए हैं। महात्मा गांधी तो यहां तक कहते थे --- “ निर्मल अंतःकरण को जिस समय जो प्रतीत हो, वही सत्य है। उस पर दृढ़ रहने से शुद्ध सत्य की प्राप्ति हो जाती है।” वायरन तो इससे भी आगे बढ़ गए। उन्होंने कहा, " मानव का अंतःकरण ही ईश्वर की वाणी है। " आवश्यकता होती है उसे ध्यान से सुनकर अमल में लाने की।
अंतः प्रेरणा का महत्व समझ कर जब हम अपने चारों ओर कि सृष्टि, सारे जगत को देखते हैं तो हमें यहां भी बहुत कुछ प्रेरित करता है और हमें उससे भी बहुत कुछ ग्रहण करना पड़ता है। पहाड़ से गिरती जलधार से, फलों से लदे वृक्षों से हमें विनम्रता मिलती है; धरती की धूल और घास हमें सहनशीलता देती है। फूलों से मुस्कान, चिड़ियों से स्वतंत्रता आदि कितनी ही बातें मिलती है।
किंतु सच तो यह है कि भौतिकतावादी सुखों में आलिप्त और उसे 'और' - 'और' पाने की अंधी दौड़ हमें यह सोचने का अवसर ही नहीं देती कि हमें सृष्टि और प्रकृति से भी कुछ पाना है। हम अपने ही माया जाल में उलझ कर छटपटा रहे हैं मुक्ति का कोई मार्ग नहीं मिल रहा है---- यह सब उसी का परिणाम है--- जिसे हम प्रेरणा की उपेक्षा कहते हैं।
किसी विद्वान ने ठीक कहा है----' प्रेरणा वह प्रकाश स्रोत है जो प्रतिकूलता के घने कोहरे को चीड़ कर आशाओं की सतरंगी आभा बिखेरती है । अभाव की दर्द भरी दलदल से समृद्धि का भवन खड़ा करती है और आसक्ति के मलिन- धूमिल आकाश में सामर्थ्य का सूर्य उदय करती है। असफलता के असहाय क्षणों में प्रेरणा ही जीने का सहारा देती है। आगे बढ़ने का हौसला देती हैं।
प्रेरणा ही है जो जीवन को जीवंत बना देती है। वह हर तरह के विषमताओं में विश्वास की शक्ति जगाती हैं। दुर्गम और असंभव सा लगने वाला लक्ष्य सहजता सरलता से मिल जाता है। इसी के द्वारा पतन पराभव से जर्जर मानसिकता, प्रगति और उन्नति की ऊर्जा से ओतप्रोत हो जाती है। फिर जीवन में बिखराव रुकता है, भटकाव थमता है। जब उमंगो के अनगिनत बुझे दीप जगमगा उठते हैं।
just-thinking |
जापान में एक सेनापति था जो थोड़े से सैनिकों और हथियारों के बलबूते पर ही अपने से बड़े शत्रु सैन्य दल को धराशाई कर देता था। उसका नाम था - नोबुनागा । एक बार जब शत्रु की सेना से लड़ने के लिए चला तो उसने अनुभव किया कि उसके छोटे से सैन्य दल में उत्साह नहीं है जो शत्रु से भिड़ने के लिए चाहिए। तब वह उन सबको एक मंदिर में ले गया। उसने देवता के सामने प्रार्थना करके कहा - "मैं तीन बार सिक्का उछालूंगा ।
यदि सबसे अधिक बार "हेड" आया तो जीत होगी और यदि "टेल" आया तो हार होगी । यह अब आपकी आज्ञा से होगा। यह कहकर सेनापति नोबुनागा ने उन सैनिकों की उपस्थिति में देवता के सामने तीन बार सिक्का उछाला और तीनों बार "हेड" आया । यह देखकर सैनिक खुशी से चिल्ला पड़े - "जीत हमारी होगी"। हम दुश्मन को मिटा देंगे और वे जाकर अपने से कहीं बड़ी सेना से , इतनी बहादुरी से लड़े कि शत्रु को पराजय मिली।
विजय की खुशी में आयोजित समारोह में सेनापति नोबुनागा ने कहा - "यह जीत हमें उस सिक्के द्वारा दी गई प्रेरणा से मिली है, जिसने हमें तीन बार हेड दिखाया । जबकि यह सच है कि उन तीनों सिक्कों में दोनों ओर "हेड" ही था -- उनमें टेल तो था ही नहीं। इसका मतलब है कि सिक्के की हेड कि प्रेरणा हमारे अंदर आत्मविश्वास इतना जगा दिया कि विजय तो हमारी ही होगी। जी हां, आप प्रेरणा की आवाज सुनेंगे तो विजय आपकी ही होगी।
Just think
just-thinking |
NYC
ReplyDeletethanks
ReplyDelete